Tuesday 18 February 2014

तब तो तुम भी छोटी थी तुम्हारे नखरे भी...

नाइंटीज के अंतिम सालों की बात है. जब मैं छोटा हुआ करता था. और मुझे सारी चीजें छोटी लगती थी, सिवाए मेरे सपनों के. तुम, तुम्हारे बॉयज कट बाल और तुम्हारे नखरे, सारे छोटे थे. हम छोटे सपने बड़े.

लेकिन आज हम बड़े हो गए हैं, और सपने, और भी बड़े. तुम भी बड़ी हो गयी है, तुम्हारे बाल भी. और साथ साथ ये कम्बख्त, तुम्हारे नखरे भी. बड़ी मुश्किल है, बालों के साथ नखरों को बड़े होने कि इजाजत किसने दी?

खैर आज चलते हैं बचपन में, जब हम छोटे थे और तुम मेरे से भी छोटी, दो साल.

तब तुमसे बात करने की ख्वाहिश बस एक मोर्टन चॉकलेट (नाइंटीज में मोर्टन 50 पैसे में मिलता था) से पूरी हो गयी थी, आज तो कैडबरी के पूरे के पुरे पाकेट किसी के काम के नही.

तब तो पहली बार बात होने की देर थी, फिर क्या; मिलने के लिए तो बस ब्रेक तक का इन्तजार था.
चलो एक बार फिर मेरे अमरुद के बागीचों में. गूगल इमेज.  

रूठने तो तुम्हे जैसे आता ही नही था. और जब कभी रूठ भी जाती मेरे एक अमरुद और एक स्माइल ही काफी थे, तुम्हें मनाने के लिए.

अब तो तुम रूठती हो, खूब रूठती हो. और एक अमरुद और स्माइल क्या, फूलों के गुलदस्ते, फलों की बोरी और स्माइल्स की टोकरी का कोई असर ही नही होता.

पहले मैं जब पहले क्लास में फर्स्ट आता, तुम्हारे हाथों में सेंटर फ्रेश होता, होठो पे मुस्कान और आँखों में आँसू.

अब तो मेरे प्रोमोशन के खबर पे तुम मंदीर चली जाती हो, मेरे साथ नही, माँ के साथ. और लौटने के बाद मुझे सेंटर फ्रेश नही, प्रसाद देती हो और एक झप्पी, जादू की. आखों में आँसूं नही बस एक भाव होता है, संतुष्टि का.      

और हाँ याद है तुम्हें, गाँव में देवी माँ को वो मंदीर और मंदीर के पास वो स्टेट बोरिंग. तब हम तुम बोरिंग में  नहाते. और मंदीर में पूजा करते समय सर को ढँकने के लिए तुम मेरा रुमाल ले लेती.

क्युँकि तब तो तुम छोटी थी न, न तो चुनरी पास में रखती थी, न ही साड़ी पहनती थी. सर ढंकने का कोई और उपाय नही था.

लेकिन अब तो तुम बड़ी हो गयी हो न. तुम्हरे चुनरी और तुम्हारे साड़ी अब तो जैसे मेरे रुमाल के दुश्मन से बन गए हों. आज भी तुम मेरा रुमाल लेती हो. लेकिन पूजा करते समय नही, बल्कि शाम में, जब मैं ऑफिस से आता हूँ. सुबह में वो रुमाल साफ़ सुथरा मेरे पॉकेट में मिलता है.

"चलिए अब बंद कीजिये ये बचपन कि बातें. एंड आई एम सॉरी, आज के बाद नही होना है मुझे गुस्सा," वो बोली.

पिछले आधे घंटे से वो चुप चाप मेरी बात सुन रही थी. पता नही क्यों अब सुबकने लगी थी.

सुबकते हुए बोली, "और हाँ, एक बात और, "माँ अब बोलती हैं मुझे, कि कब तक तुम लोग केवल अपने ही बचपन कि बातें करोगे. एक बचपन अपने आँगन में भी ले आओ'."

मैंने कहा, "अच्छा ठीक है. लाइट बंद कीजिये. रात बहुत हो गयी है."        

Friday 14 February 2014

‘Wave’, Visa don’t make Prime Ministers

Nancy Powell and Narendra Modi Courtesy: BBC Hindi  
The Valentine’s week meeting between US Ambassador to India, Nancy Powell and BJP’s Prime Ministerial candidate Narendra Modi does not at all mean that the USA has developed new love for Modi.

What it means however is this: Americanism and Opportunism are bywords. And BJP propaganda model of election campaigning has gained some foreign currency.

Americanism is guided by nothing but USA’s business interest. The Americanism I am talking about does not mind standing with Syrian rebels who draw support from Iran and Al-Qaeda faction, USA’s official enemy. 

Americanism does not hesitate in tapping phone calls of their “friend country’s” chancellor. The Americanism I am referring to does not mind strip-searching Indian female diplomate, legal and Conventional standings of which are questionable.

The official press release by the American embassy in New Delhi issued after Modi-Powell meeting very clearly articulates that “her discussions focus on the importance of the US-India relationship, regional security issues, Human Rights, and American trade and investment in India.”

It’s strange that America finds it important and apt to discuss Human Rights with a politician who they have boycotted for last nine years because of his alleged role in 2002 pogrom in Gujarat. They have revoked Modi’s visas to the USA, both the tourist and diplomatic in 2005.

The BJP and Modi lobbyist at several occasions since the boycott and visa ban have raised the issue with the USA but they remained unmoved. They have chosen to talk to Modi at a time that they perceive is the best suited to America’s business.

But isn’t hypocrisy what Americanism is all about?

In run up to this meeting and after it there have been suggestions that USA might lift visa ban.

What has suddenly prompted this sudden change in the USA’s stance, if not the business considerations? Trade and business have been the phrases guiding USA’s any move.

Thanks to the highly efficient propaganda model of election campaigning of Modi, Westerns leaders and journalist alike have started believing he is going to be the next Prime Minister of India. But going by the real-politic in India chances of Modi becoming Prime Minister is minimal if not bleak altogether.

Under Modi’s command is arguably the world’s best team of image builders and propagandist. And this has hugely influenced how the world perceives Modi.

At least in two recent BBC programmes, I have watched the British journalist presenting his arguments on the conviction of Modi being the next Prime Minister. It is this belief of western countries that have prompted their leaders to meet and talk to NaMo.

There are convinced if they have to do business in and with India they need to develop rapport with him. Great Britain and European Union have already shunned their policy of untouchability towards Modi.

In October 2012, Britain’s envoy met Modi. The European Union made a policy shift in engaging with Modi in the immediate aftermath of his third consecutive victory in Gujarat January last year.

BJP’s teams of propagandists have portrayed entire India as riding the so-called Modi wave. They must be congratulated for what they have achieved – made Modi Prime Minister of country months before elections.

BJP President Rajnath Singh claimed at BJP’s rally at Bhubaneswar on 11 February that the American Congress praised Modi sometimes back.

But the fact of the matter is: America, Great Britain and the EU may meet Modi, “praise” him, give him visas but cannot not give him vote. And in India you don’t become Prime Minister because you have an American visa or because you portray that the country is riding on the “wave” you have manufactured.


Thursday 13 February 2014

दंगे, सेंटर फ्रेश और प्यार

मुज़फ्फरनगर की गलियों में खेलते-कूदते रेहान कब बड़ा हो गया उसे पता ही नहीं चला. अपने बड़े होने का एहसास पहली बार उसे तो तब हुआ जब अम्मी ने कहा था, "बेटा, रोते नहीं. देखो तो रेखा तुमसे छोटी है और दो महीने पहले से ही स्कूल जा रही है
पढ़ोगे तब तो दुनिया से संघर्ष कर के आगे बढ़ सकोगे." 

"मुझे नहीं संघर्ष करना है किसी से अम्मी. मुझे नहीं बड़ा होना है. मुझे स्कूल नहीं जाना है. मुझे अपने हाथी, घोड़े, राजा, रानी से दूर नही जाना है. बस और कुछ नहीं। अम्मी! मुझे स्कुल भेज दोगी तो मुझे सेंटर फ्रेश कौन खिलायेगा?"       

लेकिन अगले सुबह अब्बू ने साईकिल से उसे स्कुल पहुंचा ही दिया. अब्बू साइकिल मोड़े और चल पड़े. रेहान को लगा काश वो दौड के अब्बू को पकड़ पाता। "मुझे नही पढ़ना अब्बू। मुझे दिन भर अम्मी से दादी से दूर नही रहना" कह पता

लेकिन साइकिल बहुत तेजी से निकल गयी. और वो रोता हुआ अपने सीट पे बैठ गया.       

स्कूल में उसका मन एकदम नही लगता. वो चुपचाप रहता। "तुम क्यूँ उदास रहते होस्कुल में मन नही लगता? मेरा भी नहीं लगता. चलो हम दोनों दोस्ती कर लेते हैं." 

"तुमसे दोस्ती कर के क्या मिलेगा मुझे? मुझे अपने हाथी, घोड़े, राजा, रानी और गुड़िया से दूर नही रहना है दिन भर. बस और कुछ नहीं। तुम मुझे ये सब दे सकोगी?"

"नहीं। लेकिन मैं तुम्हें कुछ और दे सकती हूँ. आँखें बंद करो." 

रेहान ने आँखें बंद किया। और रेखा ने उसके हाथों में एक सेंटर फ्रेश रख दिया। स्कुल आने के बाद रेहान के चेहरे पे पहली बार मुस्कान थी

उस दिन से रेखा और रेहान दोस्त हो गए. रेखा के एक सेंटर फ्रेश के बदले में रेहान उसे रोज पहाड़ा सिखाता। 

तुम मेरे लिए सेंटर फ्रेश वाली दोस्त हुई. और तुम मेरे लिए मूड फ्रेश वाले दोस्त हुए.  

दोनों बड़े हो रहे थे.   

उस दिन रेहान ने देखा कि उसकी सेंटर फ्रेश वाली दोस्त ने राहुल को सेंटर फ्रेश दे दिया. उसे पता नही चला ऐसा क्यों हुआ किया था

रेहान कुछ नही बोला बस उस दिन उस से बात नही की. अगले दिन वो लता को न्यूटन का लॉ बताने लगा. पता नही रेखा को क्या हुआ? क्लास में दोनों ने बात नही की. अगले दिन टिफ़िन के समय रेखा सेंटर फ्रेश ले के रेहान के पास पहुंची। 

रेहान ने सेंटर फ्रेश ले लिया। पर उसने उस से कोई बात नही की. रेखा भी बिना कुछ बोले चली गयी. स्कुल बस में रेहान ने देखा उसकी सेंटर फ्रेश वाली दोस्त बस के पीछे वाली सीट चुप चाप बैठी है. वो उसके पास गया

"हेलो। रेहान ने बोला।" रेहान का इतना बोलना था कि रेखा के आँखें झर झर बहने लगीं। 

"चलो तुमको न्यूटन का लॉ पढ़ाता हूँ." रेहान बोला। और रेखा ने बिना कुछ बोले हाँ में सर हिला दिया। 

बस घर पहुँच गयी. उस दिन के बाद से अब तक रेखा ने किसी और को सेंटर नही दिया और रेहान ने किसी और कुछ नही पढ़ाया।                     

वो साथ साथ आगे बढ़ते गए. बारहवीं में पहुँच गएरेखा, रेहान के लिए अभी भी सेंटर वाली दोस्त बनी रही और रेहान उसका मूड फ्रेश वाला दोस्त

अब उनकी बारहवीं  के एक्जाम नजदीक गए

तभी एक दिन मुज़फ्फरनगर में जाट और मुस्लिम समूदाय के बीच दंगे छिड़ गए. रेहान के अब्बू, अम्मी को मार दिया गया. उसकी बहन का उसके सामने रेप हुआ और फिर उसे भी मार दिया गया. रेहान कि दुनिया उजड़ गयी थी. कोई नही बचा उसके परिवार में

मुज़फ्फरनगर के राहत शिविर में रह रहे लोग उसके नए परिवार हो गए. उसकी सेंटर फ्रेश वाली दोस्त शहर में रह गयी. वो राहत शिविर में रहने लगा
A so-called relief camp, Google Images
अपने परिवार के लोगों को खोने का ग़म और बारहवीं की परीक्षा दे पाने का डर। उसके सामने कोई रास्ता नही दिखा रहा था. उधर रेखा को मालूम नही था एक ही रात ने रेहान के लिए कितना कुछ बदल दिया था

उसके परिवार वाले उसे रेहान के मोहल्ले में नही जाने देते। वो पता करना चाहती थी रेहान कि घर कि क्या हालत है. रेहान कहाँ है? लेकिन उसे उसके मोहल्ले में जाने की इजाजत नही थी

आज पहली बार रेखा को अपने हिन्दू होने का दुःख हो रहा था

रेहान को कुछ समझ नही रहा था. उसे पता थे अगर वो अपने सेंटर फ्रेश वाली दोस्त को ये सब बताता तो वो जरूर कुछ करती। कम से कम किताबें जरुर दे जाती। 

लेकिन वो कैसे बताता। उसके पास उसका फ़ोन नंबर तो था लेकिन उसके पास फूटी कौड़ी भी थी जिस से वो उए फोन कर सकता। 

एसटीडी वालों ने कॉल रेट काफी बढ़ा दिए थे. नवम्बर दिसंबर का महीना था. कड़कड़ाती ठण्ड में लगभग रोज रेहान अपने सामने कुछ नवजात बच्चों को दम तोड़ते देखता। उसके आँखों में खून के आंसू बहते। वो असहाय था

उसे अपने गाँव जाने में डर लगता था. उसे डर था जलते हुए दंगे के आग में वो भी जल जाये। बस वो चाहता थे बस एक बार रेखा से बात हो जाये, और उस से कुछ किताबें माँगा कर वो पढाई कर सके ताकि वो एक्जाम में पास हो सके.  

बहुत सारे ऑफिसियल्स और पत्रकार उसके राहत शिविर में आते और जाते। उसकी हिम्मत नही हुई किसी से फ़ोन मांग के रेखा को फ़ोन कर सके. एक दिन हिम्मत कर के एक पत्रकार से उसने फ़ोन मांग ही लिया और रेखा को फोन लगा दिया। 

रेखा को जैसे ही पता चला कि रेहान कहाँ है वो अपने कोर्से के सारे किताबें ले के जाने लगी. उसके पापा ने फिर उसे मना किया। वो नहीं मानी। तभी उसके गाँव के कुछ और लोग गए

"तुम नहीं जा सकती। वो एक मुस्लमान है. हम तुम्हें नही जाने दे सकते। वो हमारे धर्म को ख़राब करना चाहते हैं. वो चाहते हैं कि हिन्दू लड़कियों को रिझाएं और उन्हें मुस्लमान बना दें. अपना जनसंख्या बढ़ाएं। हम ये नही होने देंगे।"

"आप लोग कौन होते हैं ये तय करने वाले कि मैं कहाँ जाऊं, कहाँ जाऊं। आप उस समय कहाँ थे जब हम दोनों बचपन से साथ साथ पढ़ते रहे. आप उस समय कहाँ थे जब एक सेंटर फ्रेश के बदले में उसने मुझे इतना सारा पढ़ाया करता था

वो तो आज तक मुझे नही बोला कि मैं मुस्लमान बन जाऊं। लेकिन आपकी जिद्द और आपकी जबर्दस्ती से मुझे आज पहली बार हिन्दू होने के दुःख हो रहा है. मैं उसे किताबें पहुंचाने जाउंगी और इसमें मेरा धर्म तो ख़राब होता है ही मैं भ्रष्ट होउंगी।

लोगों को शायद रेखा कि मासूमियत पे दया गयी थी

वो अपने स्कूटी से निकल गयी. किताबें ले ली और रास्ते में उसने सेंटर फ्रेश के बड़े बड़े पॉकेट ले लिए. राहत शिविर के एक कोने में रेहान बैठ के चुप-चाप कुछ सोच रहा था जब रेखा वहाँ पहुंची थी.
Courtesy: Google  
रेखा को देख के वो खड़ा हो गया. लेकिन वो इतना सहमा हुआ था, उसकी हिम्मत नही हुई वो उस से कुछ भी बात कर सके

रेखा ने कुछ बोलना चाहा। लेकिन रेहान की आँखें नम थी और होठ खामोश। रेखा ने भी उसे ज्यादा डिस्टर्ब करना ठीक नही समझा। और किताबें और सेंटर फ्रेश रख के वहाँ से चली गयी

अब रेखा के पास कोई किताब नही बचा था. वो पढ़ नही सकी. रेहान ने परीक्षा दी. पुरे जिले में टॉप किया था. रेखा फेल कर गयी थी. लेकिन उसे आज फेल हो के भी पास होने से ज्याद संतुष्टि थी

रेहान को जब पता चला रेखा फेल हो गयी है. वो उसके पास गया. दंगे की आग बुझ चुकी थी

उसने रेखा को बोला "चलो फिर से तुम मुझे सेंटर फ्रेश देना मै तुम्हें पढ़ाया करूँगा।" उनकी डील फाइनल हो गयी थी. रेखा के अंदर भी हिम्मत गयी थी

वो बोली,"साहब बस मुझे पढ़ा के बचना चाहते हैं. आपको मुझे तो पढ़ाना ही पड़ेगा भविष्य में मेरे बच्चों को भी पढ़ाना पड़ेगा। और हाँ जब वो रोयेंगे उनको सेंटर फ्रेश आपको ही ला के देना पड़ेगा।

मुज़फ्फरनगर दंगे में जलने के बाद आज पहली बार रेहान को लगा था किसी ने उसके जले पे मलहम लगाया था

"जो आज्ञा बेगम."      


नोट: ये एक काल्पनिक कहानी है. किसी भी वर्ग के भावनाओं को ठेस पहुँचाना मेरा उद्देश्य नहीं है.