Monday 21 April 2014

काली मिट्टी के मेरे भगवान

मैं और दीदी बचपन में भगवान बनाते थे.

मटखान से काली मिट्टी मैं लाता था. घरौंदे बनाने के लिए, दीदी के साथ मिल के. जो मिट्टी बचती थी उस से हम भगवान बनाते थे. दीदी का अपना भगवान होता था, मेरा अपना.

वो पहले अपना घरौंदा बनाती थी. उसके बाद भगवान. मैं शुरू से ही भगवान बनाने के चक्कर में लगा रहता.

दीदी दसियों बार घरौंदे तोडती, दो-चार बार मैं भी तोड़ देता. कभी दायीं तरफ खिड़की खोलती कभी बाईं तरफ. कभी छत पे रेलिंग बनाती कभी तोड़ देती.

उसका लक्ष्य होता था, उसका घरौंदा सबसे अच्छा होना चाहिए.
                    मैं और दीदी बचपन में भगवान बनाते थे. गूगल इमेज 

मैं भी अपने भगवान को दसियों बार तोड़ता. कभी मुकुट पहना देता, कभी मयूर पंख लगा देता. तोड़ते-मरोड़ते, मै अपना भगवान खुद बना लेता, एकदम पर्सनलाईजड, एकदम कस्टमाइज्ड.

बहुत छोटा होता था मेरा भगवान. बस इत्ता कि मेरे ‘इंस्ट्रूमेंट बाक्स’ में आ जाये. मै उनसे खूब बातें भी करता था.

जब माँ डांट देती थी, मैं छत के एक कोने में बैठ के उनकी शिकायत करता, अपने भगवान से.

मेरा भगवान मेरी शिकायत सुनता भी था. इसका एहसास तब होता जब में आंसू सुखा लेने के बाद नीचे जाता. माँ ऐसे प्यार करती, मैं भूल जाता था अभी क्या हुआ था.

किसी-किसी दिन ‘छोटी’ क्लास में नही दिखती थी. मैं भगवान से बोलता (विनती नही करता था मैं), "उसको पढ़ने क्यू नही बुलाया?"

अगले दिन छोटी आती. मैं अपने काली मिट्टी के भगवान को धन्यवाद देता. क्यूंकि उसने ही तो उसे पढ़ने भेजा था, मुझे ऐसा लगता था.

अपने छोटे से भगवान को मैंने कितना काम दे रखा था.

माँ की डाट से पापा के चाट तक, मास्टर साहब के झाड, दादी माँ की तबियत तक. दीदी की बोसगिरी से, छोटी (जिसमे मुझे रब दीखता था) के नखरे तक, एक्जाम के रिजल्ट से क्रिकेट में जीत तक; सब का जिम्मा उसी छोटे से भगवन पे था.

और वो छोटा सा भगवान कितना बड़ा था, मेरी हर बात सुनता था.

मेरे सपने बड़े-बड़े होते थे, एकदम इरेश्नल से. क्यूंकि मुझे वास्तव बनना क्या था इस बारे में कोई ठोस आइडिया नही था मेरे पास. हाँ क्या नहीं बनना है ये आइडिया जरुर था.

लाल बत्ती वाली गाड़ी देखे के मेरे दिल में कभी कोई हलचल नही हुई आज तक.

माँ, बाबूजी, दीदी और छोटी के माँ-बाबूजी, इन सबको बचपन से ही लाल बत्ती का शौक था. वे लोग खुद नही कर सके. चाहते थे मैं ही घर पे ले आऊँ एक लाल बत्ती वाली गाडी.

वो अभी भी चाहते हैं, क्यूँकि अभी उम्र है मेरी. लेकिन मुझे यही नही बनना था- लाल बत्ती वाला.

और मेरे भगवान को ये बात भी पता थी. और जब घर वाले लाल बत्ती गाड़ी के सपने देखते थे मैं पीली साड़ी के.

एक मैम थी. अंगरेजी पढाती थी. हर गुरुवार पीली साड़ी पहन के आती थीं.

और सप्ताह में बस एक वही दिन होता था जब मुझे लगता था मेरी लाइफ में एक ‘एम’ है तो वो है बस इनसे शादी करना. अपने भगवान को मैंने ये भी बता दिया था.

मै छठी क्लास में था जब मैम की शादी हुई थी. छुप-छुप के रोता था मैं. कभी बगीचे में, कभी गाय की नाद के पास, कभी स्कुल के बाथरूम में. भगवान को हर समय अपने पास ही रखता था.

ऐसा पहली बार हुआ था जब मेरे भगवान ने मेरी बात नही सुनी थी.

कुछ दिन रोने के बाद गुस्से में मैंने भगवान जी को बैग से निकाल के दीदी के घरौंदे में रख दिया.

एक दिन तो क्लास में बैठे-बैठे ही रोने लगा. मैथ्स वाले सर क्लास ले रहे थे. पूछते रहे क्यूँ रो रहे हो? मैं बता न सका.

अगले दिन क्लास के बाद छोटी पूछी, “कल क्यूँ रो रहे थे?”

“क्यूँ न रोयूँ? अब कौन करेगा मेरे से शादी. मैम की तो शादी हो गयी. मैं क्या करूँगा अब?”

“अरे बुद्धू मैं करूंगी ने तुमसे शादी. परेशान काहे होते हो?”

“मजाक मत करो मेरे से. मैम पीली साड़ी में कितनी अच्छी लगती थीं? तुम तो फ्रॉक पहनती हो. और उनके बाल कितने बड़े बड़े थे. तुम्हारे तो इतने छोटे हैं. मेरे जैसे और वो तो शादी करने लायक भी थीं. तुम अभी बहुत छोटी हों. मेरी ही उमर की.”

“अरे भाई साहब. मैं बड़ी हों जाउंगी. बाल भी बढ़ा लूंगी. पापा से बोलूंगी पीली साड़ी खरीद देंगे. और क्या चाहिए? मैम अंगरेजी पढाती थी. वो तो मैं आज से शुरु कर सकती हूँ. अब चलो क्लास. घंटी पाँच मिनट पहले ही लग गयी है.”

छोटी की बात सुन के ऐसा लगा मेरा काली मिट्टी वाला भगवान अभी भी मेरी सुनता है.

घर गया दीदी से बोला मुझे नया भगवान बनाना है. उसने अपना वाला भगवान जी मुझे दे दिया.

बचपन में कभी बड़े-बड़े मंदिर में जाने की न तो जरुरत महसूस होती थी, न ही इच्छा.

बड़े होने लगे. मिट्टी के घर की जगह पक्के घर बन गए. पीली साड़ी का फैशिनेशन अब फैशिनेशन न रहा. छोटी पीली टी-शर्ट पहनने लगी थे. दीदी शादी कर के शाशुराल चली गयी.

जैसे जैसे बड़ा होता गया मेरे डिमांड बड़े होने लगे, सपने छोटे और भगवान, बहुत-बहुत बड़े.

भगवान जी मेरे बैग से निकलकर होस्टल की दीवार (पोस्टर के रूप में) पे और कमरे की रेक पे आ गए.

मंगलवार, शनिवार को अंडा, मांस खाना छोड़ दिया. गुरुवार को सरसों तेल, मांसाहारी खाना छोड़ दिया.

सिगरेट नही पिता फिर भी माचिश मेरे टेबल पे हमेशा रखी होती. सुबह शाम कमरे से अगरबत्ती की खुशबू आती.

इच्छा न होते हुए भी उपवास भी रखने लगा. हर छोटी से चीज के लिए मंदिर जाने लगा. बहुत सी चीजें उससे छुपाने लगा. मिन्नतें मांगने लगा. ऐसा लगने लगा भगवान पे मेरा हक अब नही रहा.

इतना करते हुए भी मैं अब भगवान से नाराज भी नही हो पता था.

धीरे धीरे एहसास होने लगा पहले भगवान से प्यार करता था. अब डरने लगा हूँ. पता नहीं ऐसा कैसे हो गया?

मैं इन चीजों से परेशां रहने लगा. एक दिन दीदी आयी थी हमसे मिलने.

मैंने उससे कहा, “चलो मंदिर चलते हैं.”

उसने बोला, “नहीं.”
मैंने पूछा, “क्यूँ?”

उसने बोला, ”ये जो इतने बड़े-बड़े मंदिरों में इतने बड़े-बड़े भगवान हैं रहते हैं न मैं नही जाना चाहती उनके पास. मुझे डर लगता है उनसे. डरती हूँ कि अगर मैं अंडे खा के उनके पास गयी तो नाराज हों जायेंगे. मीट-मांस खा के गयी तो नाराज हों जायेंगे, गुरुवार को साबुन या सरसों तेल लगा लिया तो नाराज हों जायेंगे.”

और वो मेरे साथ जो मर्जी आये कर लें मैं उनसे नाराज नही हों सकती.”

इन बड़े-बड़े भगवानों से तो अच्छा तो हमारे काली मिट्टी वाले भगवान ही थे. जिससे मैं कभी नहीं डरी. उससे शिकायत की. उससे माँगा और नही दिया तो मैं गुस्सा भी हुई. वो सब सहता था."

उसे दंभ भी नही था कि वो दुनिया बनाता है. क्यूंकि उसे पता था हम दोनों उसे बनाते थे. साथ-साथ मिल के दीपावली में. पत्थरों से, धातुओं से, संगमरमर से, सोने से, चांदी से बने बड़े-बड़े भगवान नहीं चाहिए.


मुझे मेरी काली मिट्टी से बना छोटा सा भगवान चाहिए.”

मैं चुप रहा. मेरी आंखें उस तरफ गयी जहाँ बैठ के हम घरौंदा बनाते थे.
आज वहाँ पे एक देवताघर बना दिया गया था, सीमेंटेड. और उसमे कुलदेवता जी को बैठा दिया गया था.

Saturday 19 April 2014

तुम्हारे लूज टी-शर्ट




हमारा स्कुल को-एड था. लेकिन लड़कों-लड़कियों के बीच एक अनकही 'लोहे की दीवार' थी. देश के जिस हिस्से से मैं आता हूँ वहाँ ये आम बात है. 

स्कुल में हम लड़कियों से बात भले ही नही करते थे लेकिन 'नयनसुख' प्राप्त करने पे कोई रोक न तो हो सकती थी और न ही थी. लड़कियों के बारे में हमें जो भी पता था वो या तो उन्हें देखने/घूरने से पता था या फिर हमारे इमेजिनेशन का कमाल था.     

पुरे पाँच साल साथ पढ़ने के बाद मैं उसके बारे में बस इतना जान पाया था कि वो थोड़ी मोटी थी और थोड़ी फुर्तीली. वो मेरे स्कुल में साथ ही पढ़ती थी. कभी-कभी वो लडकों वाली भी पतलून पहने दिख जाती. 

और ये भी कि वो मस्त' कैटेगरी वाली लड़की थी. बॉयज हॉस्टल में लड़कों ने लड़कियों की बहुत सारी कैटेगरी बना के रखी थी. 

स्कुल छोड़ देने के बाद मैं उसे भूल गया था. 

एक दिन अनजाने से नम्बर से फ़ोन आया. उठाया तो पता चला ये तो वही थोड़ी मोटी, थोड़ी फुर्तीली और 'मस्त' कैटेगरी वाली लड़की थी. 

बातें हुईं तो पता चला की उसका एक बड़ा परिवार है. बड़ी बहन की अभी शादी करनी थी, बाबूजी बहुत दारु पीते थे और माँ - बस एक गृहिणी थी. भाई अभी नौकरी की तलाश में ही था.

घर में पैसे कि किल्लत थी. भैया की जो पतलून छोटी हो जाती थी माँ थोडा काट-छाँट के उसे लड़कियों के पहनने लायक बना कर उसे दे देती. और वो इतने गर्व से उन पतलूनों को पहनती.   

अपने बाल छोटे रखती थी. ताकि शैम्पू वगैरह का खर्च बच जाता. 

उसके छोटे बाल और केयरलेस तरीके से पहने गए पतलून की वजह से हमें ये लगता था वो बहुत ही एडवांस घर कि लड़की थी. आज पता चला हम लड़के कितने गलत थे. 

खैर बातें होती रहीं. एक दिन मैंने उसको फ़ोन किया. दूसरी तरफ से एक मर्द-आवाज आयी. मैने कहा, मुझे उससे बात करनी है. 

और वो आखिरी कॉल साबित हुआ. उसके बाद से न तो उसका कोई फ़ोन आया न ही वो नंबर कभी फिर ऑन हुआ. मुझे बुरा लगा. लेकिन कोई चारा नही था मेरे पास. 

उसके साथ बिताये एक महीने को मैंने एक खुबशुरत महीना समझ के भूल जाना चाहा. आगे पढाई करते-करते मैं कॉलेज पहुँच गया. मैं फेसबुक पे बहुत एक्टिव रहता हूँ. 

कॉलेज के कुछ फ्रेंड्स को इंटरनेशनल साइंस कांग्रेस में वॉलंटियर बन के दूसरे कॉलेज में जाना था. मेरी एक फ्रेंड भी जाने वाली थी. 

कॉलेज कि तरफ से जो टी-शर्ट उसे मिली थी उसने खो दी थी. उसने मेरा कॉलेज टी-शर्ट माँगा और मैंने दे दिया. वो चली गयी साइंस कांग्रेस में. 

अगले दिन मैं क्लास में बैठा था. तभी मुझे ऑफिस में मुझे बुलाया गया. ये कह के कि मुझसे कोई मिलने आयी है. 

"इस अनजान शहर में जहाँ कॉलेज के लोगों के अलावे मुझे कोई नही जनता, मुझेसे मिलने कौन आ सकती है," मैं ये सोचते-सोचते एडमिन ब्लॉक की सीढियाँ चढ़ने लगा. 

तभी किसी ने पीछे से मेरे टी-शर्ट को पकड़ के खींचा. मैं रुका, पीछे देखा तो अवाक् रह गया.       

"फोन पे बात नहीं करती तो क्या आप अपना पहना हुआ टी-शर्ट लड़की को पहनने के लिए दे देंगे," अब टी-शर्ट छोड़ के उसने मेरे कान पकड़ लिए थे. 

                इन्हीं टी-शर्ट की बात मैं कर रहा हूँ.      फोटो: अंकित फेसबुक   
"अरे क्या हुआ? अचानक से तुम यहाँ कैसे? और तुम्हें कैसे पता मैंने अपना टी-शर्ट किसी लड़की को दिया है," मैं तो एकदम अजीब सा महसूस कर रहा था. 3 सालों बाद वो एकदम से ऐसे कैसे मेरे सामने आ सकती है.  

सामने से लोग आ-जा रहे थे और वो मेरा कान पकडे खड़ी थी. 

"फेसबूक से मुझे पता चला आप कहाँ पढाई कर रहे हैं. मेरे कॉलेज में ही साइंस कांग्रेस हो रहा है. कुछ वॉलंटियर्स को मैंने देखा. वो जो टी-शर्ट पहने हैं उसपे आपके कॉलेज का नाम लिखा है. मैंने उनसे बात की. उसी में से एक ने मुझे बताया आप यही हैं. और ये भी कि वो जो टी-शर्ट पहन रखी थी वो उसकी नही आपकी थी." उसने अब मेरे कान छोड़ दिए थे.   

"मैं आपसे बात नही करती थी, क्योंकि दूसरी जाति के लड़के से बात करना मेरे बाबूजी को पसंद नही. और उनको शायद ये लगता था कि हमारे बीच फ़ोन पे बातें होना तो बस एक शुरआत है. मुझे अजीब सा लगा जब मुझे पता चला एक लड़की आपका पहना हुआ टी-शर्ट पहन रही है. मेरे से बर्दाश्त नही हुआ. मैंने उस लड़की से आपका पता लिया और चली आयी यहाँ."  

"बाप-रे-बाप. आज से मैं खुद का टी-शर्ट पहनूँगा ही नहीं. दूसरे को दे सकने कि बात छोड़ो. मैं तुम्हारे टी-शर्ट से काम चलाऊँगा," मैंने कहा. 

"बुद्धू शरीर नही देखते अपना. डूब जायेंगे मेरे टी-शर्ट में," वो बोली. हंस भी रही थी, सुबक भी रही थी. 

कल शाम हम दोनों बैडमिंटन खेल रहे थे. उसको अपना वेट कम करना था और मुझे उसके टाइम स्पेंड करना था. उसके बाल अब बड़े हो गए थे. जब वो झुक के शटल उठाती और सर्विस करने के लिए खड़ी होती उसके बाल लहराते. मेरा मकसद तो उसके बालों को लहराते देखना था.   

पड़ोस वाले शर्मा अंकल जॉगिंग करते पास से जा रहे थे. "अरे आज तुम्हारा टी-शर्ट इतना लूज क्यों हो रहा है?"  

"गुड इवनिंग अंकल। कैसे हैं आप?" मैं इतना कहा और ऐसे एक्टिंग करने लगा जैसे मैं बैडमिंटन खेलने में बहुत व्यस्त हूँ और उनके प्रश्न का उत्तर नही दे सकता.   

मैं ये नही बताना चाहता था कि जो टी-शर्ट मैंने पहन रखी थी वो तो उसकी थी, जो सामने वाले कोर्ट में खड़ी थी. और 2 सेट जीत चुकी थी. तीसरे में भी 18-11 से आगे थी.  

अंकल जी भी नॉर्मल स्पीड से जॉगिंग करते हुए आगे निकल गए. 

"शुक्र मनाइये अंकल जी ने टी-शर्ट के पीछे लिखा मेरा नाम और नंबर नही देखा. वरना आपकी तो पोल ही खुल जाती. रोज-रोज मेरा टी-शर्ट पहन के आ जाते हैं," वो बोली. 

"क्या सोचते अंकल जी आपके बारे में," वो अपने हाथों से मुँह छुपा के हंसने लगी.    

"अच्छा जी. मेरे बारे में क्या सोचते? अपना शरीर नही देखती. मोटी हो. तुम्हारे टी-शर्ट मुझे तो लूज होंगे ही न. और उसी दिन तो मैंने कहा था न मै आज के बाद केवल तुम्हारा टी-शर्ट पहनूंगा,"           

"क्या बोला? क्या बोला? मोटी. चलो घर आज रात रोटी नही बेलन मिलेंगे," वो बोली और सर्विस करते करते रुक गयी. 

"रात की बात रात में करना डीअर. अभी सर्विस करो," मैंने कहा.         




  

Tuesday 15 April 2014

उस रोमांस में कितनी डीसेंसी थी......

पद्मलोचन.  

कोलेज ने प्री-एक्जाम लीव दे रखा है. सो आज कल हर दिन वीकेंड टाइप फील होता है.

आज सुबह सो ही रहा था, पद्मलोचन आया कमरे में. पद्म मेरा क्लासमेट है.  

"चलो, मेरे गाँव चलते हैं - कान्तपड़ा. आम के बगीचे में जायेंगे, 'हॉट स्प्रिंग' देखेंगे, तलाब में नहाएंगे, पहाड़ों कि चढाई करेंगे (कर सके तो) और शाम तक लौट जायेंगे."

"ठीक है," मैंने कहा.

पद्म को मिला के हम पाँच थे. और हमने उन दोनों को भी बुला लिया. और हम सात हों गए. सुना था उन दोनों का "कुछ चल रहा है".      
     
कान्तपड़ा ओडिशा के अंगुल जिले में है. भुवनेश्वर से सौ किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पे. साढ़े सात बजे वाली ट्रेन पकड़ ली ढेंकानाल से.  ट्रेन में हम सब खीरा खा रहे थे.  

उन दोनों में जो वो थी - अपना खीरा खतम कर ली. उसके दोनों हाथ गीले थे.

बड़े ही नफासत से उसने अपने दाहिने हाथ की उँगलियों को उसके शर्ट में पोंछना शुरू किया. पहले सबसे छोटी वाली उंगली. डर भी रही थी. वो कुछ बोल ने दे.

वो मुड के एक बार देखा. चेहरे पे कोई भाव नही थे. लेकिन आँखों बोल रही थी, "पोछ लीजिए. मैं भी आपको गीला करूँगा तुरत. फिर मत बोलना."

और फिर वो अपने दोनों हाथों को उसके शर्ट में रगड़ के सुखा डाली.

तब तक वो भी अपना खीरा खतम कर चूका था. उसने आव देखा न ताव उसके दुपट्टे का आँचल उठा के पहले उस से मुंह पोछा. और फिर अपने दोनों हाथ.

वो मासूमियत से मुस्कुराती रही. एकाध बार हम लोगों की तरफ देखती. होठ ऐसे बिद्काती जैसे उसे ये अच्छा नहीं लग रहा हो.    

लेकिन उसकी आँखें उसकी दिल कि चुगली कर रही थीं.

"अरे सुनो. तुम दोनों जिंदगी भर का एक करार कर लो. तुम इसके शर्ट में हाथ पोछोगी और येंतुम्हारे दुपट्टे में,"
मैंने बोला. मैं बोलते रहता हूँ. ट्रेन के सफर में, ऐसे ही चिरकुट कि तरह.

दोनों ने कुछ नही बोला. मुस्कुरा दिए. सामने वाली सीट पे मेरी एक और फ्रेंड बैठी थी. वो भी मुस्कुरा रही थी.

ट्रेन बोइंडा स्टेशन पे रुकी. उतरे. दस मिनट पैदल और फिर एक घंटे की गाड़ी से यात्रा. पहाड़ों के बीच बनी सडकें. सडकें बहुत अच्छी थीं.  बहुत कम कंनेक्टिंग सडकें ही इतनी अच्छी होती हैं.

लंबे-लंबे पेड जैसे सड़क की रखवाली में तैनात हों, सीना तान के. जंगल के लंबे लंबे स्ट्रेच के बीच में कहीं कहीं पे आदमियों के रहने कि निशान मिल जाते. पुआल के छत कि नीचे बकरी और गाय दिख जाती. और आम के पेड तो रास्ते में हर जगह दिख जाते.

और ये रहा मेरे द्वारा खिंचा गया पहला फोटो मेरे ब्लॉग पे.  


पद्म ने बताया न्यूजपेपर शाम में पहुँचता है उसके गाँव में.

गाड़ी में वो दोनों अगल बगल बैठे थे. लाल रंग का उसका दुपट्टा, उड़ उड़ के बार-बार उसके चेहरे पे आजा रहा था.

"संभालो दुपट्टे को यार." वो बोला.

"नहीं तो," वो मुस्कुराते हुए बोली.

"नहीं तो..नहीं तो....," वो बोलते हुए उसकी तरफ मुड़ा. मैंने बस इतना देखा था.    

पहुँच गए पद्म के घर. एकदम ऐसा गाँव जैसा हम फिल्मों में देखते हैं.

बाबूजी को प्रणाम किया. और सातों एक कमरे में बैठ गए.      

कमरा क्या था. आठ बाई दस का रहा होगा. एक छोट सा टीवी था. एक फ्रीज भी. और कुछ कपड़े, सलीके से एक कोने में रखे हुए थे.

एक छोटा सा पलंग भी था. पलंग पे बैठ के खिडकी के बाहर देखा जा सकता था.

खिड़की के बाहर एक छोटा सा तालाब है. और उसके बाद जंगल शुरू होता है. हरियाली जैसे कमरे में झांक रही हो. तलाब के पानी गर्मी के दोपहर की हवा में मिल के कमरे में आ रही थी.

सेटिंग्स बड़ा ही रोमांटिक था. इतना रोमांटिक, ऐसा लग रहा था इस कमरे में रोमांस की इंटेंसिटी इतनी हो सकती थी, कि आँगन में खुशियों की किलकारी खिलने में बस छः महीने लगते, नौ नहीं!

अगला पड़ाव आम का बगीचा था. बगीचे में आम के टिकोले गीरे हुए थे. हम खा रहे थे,

और वो! वो उसका फोटो खींचने में व्यस्त थी. कभी ज़ूम इन करके कभी ज़ूम आउट कर के. कभी इस एंगल से कभी उस एंगल से.    

फ्रेम में वो नही है. वो तो फोटो खींचने में व्यस्त है.   
वो बस एकाध बार उसकी तरफ देखता और फिर आम खाने में लग जाता. मैं भी एकाध बार उनकी तरफ नजरें चुरा के देखता.

बागीचे के बाद, हमने पहाड़ की चढाई भी की और हॉट स्प्रिंग भी देखा.

आज पुरे दिन में एक बात मुझे अच्छे से समझ आ गयी

'जब रोमांस में एक डीसेंसी हो तो रोमांस करने से ज्यादा देखने में अच्छा लगता है'.


Sunday 13 April 2014

हम आईआईएमसी के इतिहास हो चले

आज सुबह की ताजगी थोड़ी बाशी-बाशी सी लगी
दोपहर में सूरज भी बुझा-बुझा सा लगा
शाम में जो हवा चल रही थी उसमे एक सुस्ती सी थी
आप हमें ही देख रहे हैं न मृणाल सर? (अंकित गौतम फोटोग्राफी) 
रात भी आज कम गहरी लग रही है.....

हर तरफ एक गजब सी ख़ामोशी सी है
उस ख़ामोशी में एक अजीब सी चीख है
जो कहती है अब जागना नही पड़ेगा साढ़े सात बजे
अब नहीं लगेंगे मेले साढ़े नौ बजे टीवी रूम में.....

सब कुछ में एक अजीब सा अनजानापन है...
देखा-देखा सा लगता है क्लास रूम नंबर 1
लेकिन अब वो मुझे स्वीकार करने को तैयार नहीं है
बहुत अपना-अपना सा है 'माइंड स्पेस'
लेकिन अब वो हमें झेलने को तैयार नहीं है.....

ये जो चेहरे हैं इतने सारे, सब जाने-पहचाने हैं
कल तक वो साथ बैठते थे रेडियो क्लास में, पेपर छापने में
लेकिन वो आज आँखों में देख नही पाते एक-दूसरे के
डरते हैं, भावनाएं कहीं किनारों को तोड़ के बाहर छलक न पड़ें......

एक बिखराव सा पनप रहा है रिश्तों में
कल तक जो दिन भर साथ रहते थे, दोस्त थे
आज बेगाने प्रतित हो रहे हैं
अपने कमरों में बंद हैं
पढाई नही कर रहे
शायद अभ्यास कर रहे हैं अलग रहने का
फोटो: प्रीती मिश्रा के फेसबुक प्रोफाइल से   

एक सन्देश है इन सबमें

अब हम आईआईएमसी के नहीं रहे
आईआईएमसी हमारा न रहा
अब हम अलुमनी हो गए
अब हम वर्तमान नही रहे ...हम इतिहास हो गए....

बस एक आग्रह हैं समय से.
ये जो रास्ते हैं रेत के, जिनपे हमारे क़दमों के निशां हैं
उन निशानों को वहीँ रहने देना, उन्हें मिटाना नहीं
ताकि हम कभी खुद को जीना चाहें, तो भटकना न पड़े.  

Wednesday 9 April 2014

ब्रेक-अप के बाद...

अब जबकि तुम नही हो, कहीं नही हो.

मैं बस ये प्रार्थना करूँगा कि, मैं बीमार न पडूं. क्योंकि उस हालात में मुझे बस तुम्हारी ही याद आती है.

मैं ये प्रयास करूँगा कि मैं किसी मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या किसी भी भगवान् के पास न जाऊँ - वहाँ जाते बंद आँखों से केवल तुम ही दिखती हो.

मैं वो अपनी पुरानी साईकिल भी बेच दूंगा अब. हाई स्कुल में जिस से मैं पढ़ने जाता था. वो पुराने साइकिल घर के एक कोने केवल इसलिए पड़ी है क्यूंकि कभी-कभी तुम भी उस पे बैठ जाती थी.

और वो कार भी जो हमने एक साथ जा के खरीदा था. मेरी नौकरी के दो साल बाद.

दोस्त पूछ रहा था "ब्रेक अप के बाद मैंने वो किताब तुम्हें लौटा दिया जो तुमने इस वेलेन्टाइन डे मुझे फ्लिपकार्ट से भेजा था?"

"मैं क्या -क्या लौटाऊँ उसे. कितनी सारी किताबें हैं, ये कुर्ता जो मुझमे इतनी जँचती है, वो कॉफी मग जिसपे मेरा फ़ोटो लगा है, वो गोल्डेन रंग वाली घड़ी जो मैं पहनता हूँ. ये सब लौटा दूँ तो मैं तो गरीब ही हो जाउंगा," मैंने उसे बोला.

लेकिन मुझे बस एक चीज समझ नही आती कि मैं उन सपनों का क्या करूँ जो साथ साथ हमने देखे थे.

"मैं शादी के बाद नौकरी छोड़ दूंगी. घर पे रहूँगी सुबह में तुम्हारा टाई, रुमाल और शूज ठीक कर के दूंगी और टीफीन लगा के दूंगी, दोपहर में फोन कर के जबरदस्ती तुम्हें ऑफिस से बुलाऊंगी लंच करने के लिए और शाम में साथ में आइसक्रीम खायेंगे," ये सपने अब जिंदगी भर अब सपने रह जायेंगे.

हाँ एक और चीज है जो तुमने मुझे दिया था, वो राइटोमीटर की गुलाबी रंग वाली कलम. उसका क्या करूँगा?

याद है बालू पे हम दो बड़े-बड़े सर्कल बनाते थे. एक में मैं तुम्हारा नाम लिखता था दूसरे में तुम मेरा नाम लिखती थी. लहरें आती थीं और दोनों सर्कल एक दूसरे में खो जाते थे. और साथ ही साथ हम तुम भी.

मुझे पता है तुम भूल जाओगी वो सब.

लेकिन मैं कैसे भूल सकता हूँ. उन लम्हों को जिन्होंने मुझे जिया है और जिनको मैंने जिया है.

राइटोमीटर और एक डायरी भी दी थी तुमने.

जब कुछ समझ नही आयेगा मैं सोन नदी के किनारे चला जाउंगा जहाँ हम बचपन में खेलने चले जाते थे और जवानी में मिलने.

वहीँ बालू पे बैठ के अपने खेलने, मिलने और बिछड़ने की कहानी लिखूँगा. तुम पढ़ोगी न?

कोई जवाब नही आया इस मेल का. 

शब्दांजलि में कहानी प्रस्तुत करते हुए 

आज पता चला था पांच सालों से जिस रास्ते पे हम चलते आ रहे थे वो रेत का था. बहुत मुश्किल से कदम बढ़ पाये थे. 

लेकिन आश्चर्य की बात ये थी बालू पे भी हमारे क़दमों के निशान नही बन पाए.

हाँ जो घर हमने बनाया था एक ही झटक में ढह गया, रेत का जो था.  

घर ढह गया और मै बेघर हो गया, भटकने लगा. पीछे लौटना चाहता था, उस मोड पे जिस मोड पे हम पहली बार मिले थे. फिर से जिंदगी शुरू करना चाहता था.

लेकिन क़दमों के निशान के अभाव में रास्ता भटक गया. वो तो हाथ छोड़ दी थी, भटकते गया.

जब मै अकेले ही वीराने चलता गया पीछे से किसी ने बोला, “धप्पा”.

मैंने देखा तो जिंदगी थी मेरे पीछे.

मैंने पूछा, अब तक मै तुमको समझ नही पाया. कहाँ थी आज तक?

बोली, "मै तो बस चलती जाती हूँ. ठहरती कहाँ? कभी यहाँ, कभी वहाँ. तुम मुझे खोजते हो जहाँ, मै कभी नही मिलूंगी वहाँ. कूदते-फांदते रहो. खेलते-खेलातो रहो. रोओगे तो मै कभी नही मिलूंगी."

“मै समझा नही कहना क्या चाहती हो तुम?

"मै हँसने में हूँ, हँसाने में हूँ. मै इशक में हूँ, मै प्यार में हूँ. मै भय में नही मै निराशा में नही. मै साहस में हूँ मै आशा में हूँ. मैं जिंदगी हूँ."

अच्छा तो ऐसा क्या करूँ तुम सदा मेरे साथ रहो.

"तुम्हारे साथ मैंने कई पड़ाव पार किये है. तुमको परेशां देखा है. हताश देखा है निराश देखा है. तुमको रोते देखा हैतुमको बिलखते देखा है. और जब भी तुमने वैसा किया है. मै चली गयी हूँ दूर तुमसे. तुम्हे कभी पता नही चला. और आज जब वो चली गयी मै फिर से आयी हूँ तुम्हारे पास. ये सब छोडो. जी लो मुझे."

मैंने जिंदगी से कहा, "अभी मैंने तुम्हें समझना शुरू ही किया और तुम इतने पड़ाव पार कर चुकी हो.”

जिंदगी ने कहा, “लेकिन वो पड़ाव ही थे. मुकाम तक तो साथ साथ ही जायेंगे --मै और तुम.." 
मैंने जिंदगी की बाँहों में अपना बाँह डाला और हम साथ साथ चल पड़े.

ब्रेक अप के बाद, जिंदगी के साथ, जिंदगी की ओरजीने की ओर.  

Slapping: it's a political pornography

                         Slapped again                              Google image
Want to enjoy Political Pornography! Come to the world's largest democracy - India. This is the best time since elections are underway.

Here is the opportunity to watch leaders being slapped at the rate of a 'thappad' every second day, to watch leaders inked every week, and egged as and when any Tom Dick and Harry wills.

We Indians have turned all the stones to ensure democracy goes into drain.

Abusing political leaders is not a big deal here. We do this every single day. Frankly I cannot deride it. Abuses are expression of frustration. The political leaders have “earned” it. 

But what must be criticised and condemned in strongest decibel is slapping of a political leader, throwing ink or egg on his/her face. 

I don't bother what other countries think about such incidents happening in India, but I certainly care about where such incidents are taking us to.

Can we afford to usher a system wherein anybody can slap any leader as and when he/she desires, a system where we express ourselves not through ballot but bullet.

Today a slap, tomorrow a bullet! Is the transition impossible? Answer is “no” if we keep on degenerating at the pace we have been.

One or two such incidents can be termed as aberration, can be viewed as act of madness by some brat. But the rate at which political leaders, mostly aligned to AAP, are being slapped, inked, egged smack of a systemic devil.  

It appears to be a planned tactic. A covert system appears to be working. This covert system is making slappers out of frustrated voters. to demean rival political parties. And this devil is destroying our democracy. 

The voters are falling prey. They slap then get slapped, thrashed and even jailed. And when voters are brain-washed to pass verdict not through ballot but through slapping, democracy, of course, becomes casualty.       

67 years are insignificant for a country's age. But six decades are reasonable time for its people to realise or otherwise the worthiness of the system that has governed them - Democracy. If they find it worthy, they have to respect it otherwise they must come out in the streets and throw it.

I don't argue our democracy is flawless and our leaders are all god man. However, what can be said without fear of being countered is that democracy is the least worst system of governance in the contemporary history. Our leaders are not Benevolent Dictator of Life but they form most important aspect of democratic system. So does a common man.

Defaulting onto his promises made to people in Delhi is presented as the justification every time Kejirwal is slapped. No political party or leader in the world has ever delivered what it promised and never will this happen.

If this becomes the criterion, I am afraid we will end up slapping every political leader (exceptions are very few). Its true for India as much as its true for any other country.

Slapping, inking, egging is the most imprudent, insane, mean, nonsensical and costly way of expressing political anger or frustration.

We have the responsibility of preventing our country from becoming a laboratory for political pornography. We have to shun slapping.

Voting is on. Lets go out and spew our anger through the ballot box. A vote after all is more powerful than a slap, isn't it?

May sanity prevail.
May sanity prevail.