Thursday 20 November 2014

कहानी टॉपर्स की


बचपन से ही वो भागता रहा. कभी किसी ने कहा नही लेकिन वो हांफता रहा. भागते-भागते हॉस्टल पहुँच गया. हॉस्टल के वाशरूम में उसके हांफ सिसकियों में बदल जाते. लेकिन सोता तो फिर से भागने के सपने देखता. सपने में भी हांफता. लेकिन भागता जाता.  

उसे सबसे आगे रहने की जिद्द थी. और आगे रहा. लोगों के पीछे छोड़ा और गाँव वाले बांस के (छोटे) जंगल को भी. जो अब उजाड़ है. आम के बगीचे को पीछे छोड़ा. उसे पता नहीं ऐसा कब हुआ लेकिन उस बगीचे में अब कुछ ठूँठ ही पड़े होंगे. 

वो भागता रहा, 'आगे' की तरफ, जिंदगी ठहरी रही, और उसके पैरों के तले से जमीं खिसकती रही. लेकिन वो गिरा नहीं. क्यूंकि वो तो भागने में मशगूल था. जमीन और जिंदगी की परवाह उसे नही थी. 

एक दिन वो सातवें आसमान पे भी पहुँच गया. आसमान पे और कौन होता है? अकेले था. बैठा रहा. पहली बार ठहरा था. खुद से बातें किया. 

अहसास हो रहा था आज उसे. पैरों तले जमीन खिसकती है तो कोई गिरता नहीं और सातवें आसमान पे जा के भी कोई उड़ता नहीं.       

अब वो ठहरना चाहता था. लेकिन किसके साथ.  भागते-भागते वो अब खुद को भी पीछे छोड़ चूका था. 
वो अमरुद का पेड़ भी पीछे छूट गया, जिसपे चढ़ के वो उसकी  छत पे अमरुद फेंकता था. और वो दुपट्टा भी पीछे रहा जिसमे वो अमरुद इकठ्ठे करती थी. 

भागते-हाँफते इतना दूर (आगे नहीं) आ गया था. माँ, पापा की आवाज भी अनजान लगती थी. वो लौटना चाहता था. उस बांस के जंगल में, उस आम-अमरूद के बगीचे में. वो महसूस करना चाहता था, उस दुपट्टे को. 

"इतना मत भागो. ठहर जाने दो खुद को. सांस ले लो. मुझे भी सांस लेने दो," उसे याद आ रहा थी उसकी बातें. दो साल हो गए थे जब वो ये  बात उसे बोली थी. 

"हाँ मैं ठहर जाना चाहता हूँ. बस यहीं रुक जाना चाहता हूँ. जिंदगी को जी लेना चाहता हूँ. टॉपर नहीं बेटा, भैया, बउआ, मामा, प्रेमी , पति और पापा  बन जाना चाहता हूँ."

सुबह-सुबह आधी नींद में ही वो ये सब सोच रहा था. "सुनो तुम इसे हॉस्टल भेजने की जिद्द न करो. मैं नहीं भेजूंगी इसे हॉस्टल. मैं नहीं चाहती ये तुम्हारी तरह भागती रहे."

उसे आँखें थोड़ा खोली तो वो चाय ले के आ रही थी, दुपट्टा सँभालते हुए.           

"हाँ ठीक है," वो बोला. बगल वाले टूल से उठा के उसने अमरुद उसकी तरफ फेंका. जो उसके दुपट्टे में फंस गया. 

"क्या कर रहे हो ये?"

"अब मैं भी ठहर गया. थोड़ा सांस ले रहा हूँ."    

बाहर वो दादी के साथ खेल रही  थी.  मैदान में वो भाग रही थी. लेकिन वो हांफ नही रही थी. उसे हॉस्टल नही जाना था.                       

        

      

   

Wednesday 5 November 2014

कैंटीन से किचेन तक


गजब था बिकुआ। उसे पता था सर पे बचे-खुचे बाल भी नोच  दिए जायेंगे अगर वो रात को घर लेट से पहुँचा. फिर भी वो लगातार तीन दिन से लेट ही घर पहुंच रहा था. 

अब क्या करे वो भी. काम इतने आ पड़े थे, उसे जल्दी घर आने को नही मिलता। 

"अगर रोज रोज लेट से घर पहुंचोगे तो मार तो पड़ेगी ही," उस शाम रेलवे स्टेशन पे कैंटीन में खाते-खाते वो वार्निंग दी थी. 

कॉलेज में प्लेसमेंट होने के बाद बिकुआ नौकरी जॉयन करने जा रहा था. थोड़ी देर में ट्रेन आने वाली थी. पुरे ट्रेन में भरकर यादें ले  जा रहा था, और वो कॉलेज लौटने वाली थी. प्लेसमेंट उसका भी हो चूका था. लेकिन वो दो महीने बाद जॉयन करती.                       

बातें करते-करते दोनों स्टेशन एरिया में आ गए. अचानक से वो जोर से उछल पड़ी, चिल्लाते हुए. "
​चूहा, चूहा
." 

बिकुआ का हाथ पकड़ ली. बहुत जोर से. पहली बार. और बिकुआ को लगा था, वो हाथ उसके हाथ में थीं.आख़िरी बार.  

ट्रेन खुल गयी. दोनों के होठ मुस्कुरा रहे थे.चेहरा दिल को दगा देने का असफल प्रयास कर रहा था. और आँखें इशारे कर रही थी. पूरा कॉलेज खत्म हो गया था. और आज उनकी पहली मुलाकात थी.                  

 वो हॉस्टल लौट गयी. उसे आज ये अहसास हो रहा था, हंस तो वो किसी के भी साथ सकती थी, लेकिन रोना तो बस बिकुआ के  कारण ही सम्भव था.   

 इधर ट्रेन पे सवार बिकुआ बहुत दूर चल आया था. इतना दूर की ऑफिस से लौटने में लगभग हर रात लेट हो जाता था. एक तो शाम चार से रात बारह वाली नौकरी थी.  और उसपे लेट. एक तो बज ही जाते थे.   
 
 बिकुआ को पता था दरवाजा खोलने कोई नहीआने वाला. बिना डोरबेल बजाये दरवाजा खोला. और किचेन में चला गया. आमलेट बनाने.         

"तौलिये में आग पड़ रही है. पानी डाल दो," वो किचेन के बाहर खड़ी थी.    

"हाँ. डाल देता हूँ."

"ये आग है न, ये तो पानी से बुझ जाएगी। लेकिन जब अगन लगी हो तो उसके लिए बरसात की जरुरत पड़ती है," बिना उसकी तरफ देखते बिकुआ बोला.

"लेकिन तुन जब तक आते हो तब तक तो बरसात का मौसम बीत चूका होता है. और...." वो इतना बोलते-बोलते चिल्ला पड़ी, "चूहा.....चूहा."

और अगले ही पल वो दौड़ के किचेन में आ गयी. किचेन बहुत बड़ा था. लेकिन जब वो अंदर आयी तो बिकुआ के आगे-पीछे इतनी जगह नही बची की वो ठीक से खड़ा हो सके. 

स्टेशन याद आ रहा था बिकुआ को. जब पहली बार उसका हाथ बिकुआ के हाथों में थे.    

"मैं कितनी दिन से बोल रही हूँ. चूहा मारने वाली दवा क्यों नही लाते?"

"ताकि बिना मौसम ही तुम यूँ ही बरसती रहो और मैं भीगता रहूँ," बिकुआ झट से बोला. 

"सारे बाल नोच लुंगी तुम्हारे सर के. याद है या नही स्टेशन वाली वार्निंग," वो धीरे से बिकुआ के कानों में बोली.

"एक हाथ से मेरा हाथ पकड़ी हो, दुसरा हाथ की अंगुली से सर को सहला रही हो, अपने पैर से मेरे अंगूठे को दबा रखा है, और तुम्हारी धक-धक किचेन से बाहर तक सुनाई दे रही है.  सर के बाल उखाड़ने का होश है?"

"बहुत मारूंगी तुमको. नानी मरे उस चूहे की."  

    

Saturday 1 November 2014

बहुत जरुरत है यहाँ उन हवाओं की....


​मेरे गाँव के मुख्य सड़क के एक ऒर  हनुमान जी का मंदिर है और दुसरी और चतुर्भुज भगवान का मंदिर . उससे लगभग 50 मीटर की दूरी पे पीर बाबा का मजार है. और उस मजार से 50 मीटर की दूरी पे मस्जिद। 

पीर बाबा के मजार के पास एक छोटा सा खाली मैदान है. हमारे गाँव  का होलिका दहन उसी छोटे मैदान में होता  रहा है, जब से मैंने होश संभाला है. और उस मैदान के इस तरफ दशहरे का मेला लगता है. उसी मैदान में मुहर्रम का जलसा भी लगता है.  

पीर बाबा के मजार के बगल में हाट लगता है.....  मंगलवार को और शनिवार को. बचपन में मैं अपने पापाजी के साथ वहीँ सब्जी खरीदने जाता था. अब  अकेले जाया करता हूँ, जब भी मौका  मिलता है. 
बहुत जरुरत है यहाँ उन हवाओं की. फोटो: एनडीटीवी    

बचपन में मेरे एक सर हुआ करते थे - इबादत हुसैन नाम है उनका। बाजार में उनसे कभी मुलाकात हो जाती थी, तो मैं इबादत में सर झुका लेता था और पापाजी "प्रणाम मास्टर साहब बोला करते थे करते थे." सर उमर में मेरे पापाजी से पापाजी से काफी छोटे हैं. 

बगल के गाँव का नाम कोसिहान है, जहाँ इबादत सर का घर है. मेरे कई क्लासमेट्स, सीनियर और जूनियर जैसे की फ़िरोज़, उसका भाई अफरोज उसी गाँव से आते हैं. हमारे पापाजी के दोस्त अशोक भी उसी उसी गाँव से हैं. 

मैं चाहता हूँ मेरे गाँव के बाजार से चली हवाएं मुजफ्फरनगर, अयोध्या और सहारनपुर होते हुए त्रिलोकपुरी तक आ जाएं. बहुत जरुरत है यहाँ उन हवाओं की.