पद्मलोचन. |
कोलेज ने प्री-एक्जाम लीव दे रखा है. सो आज कल हर दिन वीकेंड टाइप फील होता है.
आज सुबह सो ही रहा था, पद्मलोचन आया कमरे में. पद्म मेरा क्लासमेट है.
"चलो, मेरे गाँव चलते हैं - कान्तपड़ा. आम के बगीचे में जायेंगे, 'हॉट स्प्रिंग' देखेंगे, तलाब में नहाएंगे, पहाड़ों कि चढाई करेंगे (कर सके तो) और शाम तक लौट जायेंगे."
"ठीक है," मैंने कहा.
पद्म को मिला के हम पाँच थे. और हमने उन दोनों को भी बुला लिया. और हम सात हों गए. सुना था उन दोनों का "कुछ चल रहा है".
कान्तपड़ा ओडिशा के अंगुल जिले में है. भुवनेश्वर से सौ किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पे. साढ़े सात बजे वाली ट्रेन पकड़ ली ढेंकानाल से. ट्रेन में हम सब खीरा खा रहे थे.
उन दोनों में जो वो थी - अपना खीरा खतम कर ली. उसके दोनों हाथ गीले थे.
बड़े ही नफासत से उसने अपने दाहिने हाथ की उँगलियों को उसके शर्ट में पोंछना शुरू किया. पहले सबसे छोटी वाली उंगली. डर भी रही थी. वो कुछ बोल ने दे.
वो मुड के एक बार देखा. चेहरे पे कोई भाव नही थे. लेकिन आँखों बोल रही थी, "पोछ लीजिए. मैं भी आपको गीला करूँगा तुरत. फिर मत बोलना."
और फिर वो अपने दोनों हाथों को उसके शर्ट में रगड़ के सुखा डाली.
तब तक वो भी अपना खीरा खतम कर चूका था. उसने आव देखा न ताव उसके दुपट्टे का आँचल उठा के पहले उस से मुंह पोछा. और फिर अपने दोनों हाथ.
वो मासूमियत से मुस्कुराती रही. एकाध बार हम लोगों की तरफ देखती. होठ ऐसे बिद्काती जैसे उसे ये अच्छा नहीं लग रहा हो.
लेकिन उसकी आँखें उसकी दिल कि चुगली कर रही थीं.
"अरे सुनो. तुम दोनों जिंदगी भर का एक करार कर लो. तुम इसके शर्ट में हाथ पोछोगी और येंतुम्हारे दुपट्टे में,"
मैंने बोला. मैं बोलते रहता हूँ. ट्रेन के सफर में, ऐसे ही चिरकुट कि तरह.
दोनों ने कुछ नही बोला. मुस्कुरा दिए. सामने वाली सीट पे मेरी एक और फ्रेंड बैठी थी. वो भी मुस्कुरा रही थी.
ट्रेन बोइंडा स्टेशन पे रुकी. उतरे. दस मिनट पैदल और फिर एक घंटे की गाड़ी से यात्रा. पहाड़ों के बीच बनी सडकें. सडकें बहुत अच्छी थीं. बहुत कम कंनेक्टिंग सडकें ही इतनी अच्छी होती हैं.
लंबे-लंबे पेड जैसे सड़क की रखवाली में तैनात हों, सीना तान के. जंगल के लंबे लंबे स्ट्रेच के बीच में कहीं कहीं पे आदमियों के रहने कि निशान मिल जाते. पुआल के छत कि नीचे बकरी और गाय दिख जाती. और आम के पेड तो रास्ते में हर जगह दिख जाते.
और ये रहा मेरे द्वारा खिंचा गया पहला फोटो मेरे ब्लॉग पे. |
पद्म ने बताया न्यूजपेपर शाम में पहुँचता है उसके गाँव में.
गाड़ी में वो दोनों अगल बगल बैठे थे. लाल रंग का उसका दुपट्टा, उड़ उड़ के बार-बार उसके चेहरे पे आजा रहा था.
"संभालो दुपट्टे को यार." वो बोला.
"नहीं तो," वो मुस्कुराते हुए बोली.
"नहीं तो..नहीं तो....," वो बोलते हुए उसकी तरफ मुड़ा. मैंने बस इतना देखा था.
पहुँच गए पद्म के घर. एकदम ऐसा गाँव जैसा हम फिल्मों में देखते हैं.
बाबूजी को प्रणाम किया. और सातों एक कमरे में बैठ गए.
कमरा क्या था. आठ बाई दस का रहा होगा. एक छोट सा टीवी था. एक फ्रीज भी. और कुछ कपड़े, सलीके से एक कोने में रखे हुए थे.
एक छोटा सा पलंग भी था. पलंग पे बैठ के खिडकी के बाहर देखा जा सकता था.
खिड़की के बाहर एक छोटा सा तालाब है. और उसके बाद जंगल शुरू होता है. हरियाली जैसे कमरे में झांक रही हो. तलाब के पानी गर्मी के दोपहर की हवा में मिल के कमरे में आ रही थी.
सेटिंग्स बड़ा ही रोमांटिक था. इतना रोमांटिक, ऐसा लग रहा था इस कमरे में रोमांस की इंटेंसिटी इतनी हो सकती थी, कि आँगन में खुशियों की किलकारी खिलने में बस छः महीने लगते, नौ नहीं!
अगला पड़ाव आम का बगीचा था. बगीचे में आम के टिकोले गीरे हुए थे. हम खा रहे थे,
और वो! वो उसका फोटो खींचने में व्यस्त थी. कभी ज़ूम इन करके कभी ज़ूम आउट कर के. कभी इस एंगल से कभी उस एंगल से.
फ्रेम में वो नही है. वो तो फोटो खींचने में व्यस्त है. |
बागीचे के बाद, हमने पहाड़ की चढाई भी की और हॉट स्प्रिंग भी देखा.
आज पुरे दिन में एक बात मुझे अच्छे से समझ आ गयी
'जब रोमांस में एक डीसेंसी हो तो रोमांस करने से ज्यादा देखने में अच्छा लगता है'.
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