उस साल नवम्बर का महीना था. जब मौसम वैसे ही गुलाबी था जैसे कि आज कल है. सूरज भी इतना ही सुहाना था और चाँद कि शीतलता भी वैसे ही थी जैसे कि आज है.
उन दिनों मेरी सुबह अमरुद के बगीचे में हुआ करती थी, दोपहर दादी माँ के गोद में और शाम सरसों खेत में. मेरी दुनिया अमरुद के पेड़ से शुरू हो के खेत खलिहान समा जाया करती थी.
:"वो फीलिंग्स" तो अभी नेसेंट थे.
उस सुबह अमरुद के पेड़ पे चढ़ रहा था. अचानक से मेरी नजर पड़ोस वाले छत पे गयी. लम्बे लम्बे बाल दिखे थे. उस छत पे पहले कोई नही दीखता.
उस तरफ देखते हुए मै जितना ऊपर चढ़ सकता था चढ़ा. मुझे नही पता था वो कौन थी? आज के पहले ऐसा कभी नही हुआ था, लेकिन पता नही क्या हुआ और मैंने एक अमरुद उस छत पे फेंक दिया.
वो इधर उधर देखने लगी. मैंने पेड़ जोर से हिलाया ताकि उसको बता सकूँ मैंने वो अमरुद फेंकी थी. जैसे ही पेड़ को हिलते हुए देखा "लंगूर लंगूर" कहते हुए वो भाग गयी.
क्या होना था फिर. वो पड़ोस वाली आंटी घर पे कम्प्लेन ले के आ गयी.
"जवान हो रहा है आपका लड़का। एकदम बदतमीज हो गया है. मेरी भांजी को डरा दिया। पटने में रहती है बेचारी कान्वेंट में पढ़ती है इसको क्या पता है पेड़ पे लंगूर ही नही लड़के भी चढ़ते हैं. सम्भाल लीजिये."
मुझे क्या होने वाला था. मैं भी ठहरा हीरो. अगले सुबह वो फिर छत पे थी और मैंने फिर एक अमरुद दे मारा।
पता नही क्यों कान्वेंट में पढ़ने वाली वो लड़की आज न तो डरी न ही भागी।
मैंने दूसरा अमरुद दे मारा, वो हंसने लगी। उसके बाद तो हर सुबह मैं पेड़ पे जाता। और एक अमरुद के बदले इतना सारा स्माइल ले आता.
उस गुरुवार वो छत पे आयी और तुरत जाने लगी.
"अमरुद नही लेना है आज?" मैंने पूछा। "नहीं नहीं मैं जा रही हूँ. सर्दियों कि छुट्टियों में मामा के घर आयी थी." मैं कुछ बोल पाता इस से पहले वो नीचे जा चुकी थी.
और कुछ समझता इससे पहले सफ़ेद रंग को वो मारुती मेरे सामने से गुजर गयी.
मैंने मेरी साइकिल को शॉर्ट कट रस्ते पे दौड़ा दिया ताकि सड़क पे मै उस से पहले पहुँच जाऊँ। और एक अमरुद के बदले उसकी इतनी सारी स्माइल ले आऊँ.
लेकिन जब मैं सड़क पे पहुंचा "BR-05 - 9869" वाला प्लेट ही दिखा और वो भी एक मिनट के अंदर धुंधला हो गया.
उस दिन के बाद पता नही क्यों मैंने अमरुद के पेड़ पे नही चढ़ा. हाँ बगीचे में जाता रहा.
दो साल में दसवीं पास कर के पटना आया. मैंने पता किया था वो वहाँ किस गली में रहती थी. उसी लोकैलिटी में मैंने अपना डेरा लिया।
और एक दिन वो दिख ही गयी उस मंदिर में. मैंने उसे पहचान लिया और सौभाग्य से उसने भी मुझे।
बातें हुईं तो पता चला वो आज कल साइंस पढ़ रही है. उसी समय कहीं किसी शहर में ब्लास्ट हुआ था. "आपको जर्नलिस्ट बनना है न. ये बताइये लोग क्यों इतना ब्लास्ट करते हैं?."
मैंने कहा
"शहर है ये यहाँ मौसम है बारूदों का एक बार फिर चलो मेरे गाँव मौसम है अमरूदों का
शहर है ये प्यार के लिए इन्तजार है कल परसों का मेरे गाँव खेत है सरसों का"
वो झेंप गयी. और मैं खुश हो गया. शर्म से लाल उसने चेहरे को निचे किया तो वो लम्बे बाल से उसकी मुस्कान छुप गयी.
उस दिन तो वो मेरे गाँव नही आयी.
लेकिन पिछले ३ सालों से हम दोनों सुबह में जगने के बाद साथ साथ उसी बगीचे में चाय पीते हैं. चाय बनाना तो मुझे ही पड़ता है.
उन दिनों मेरी सुबह अमरुद के बगीचे में हुआ करती थी, दोपहर दादी माँ के गोद में और शाम सरसों खेत में. मेरी दुनिया अमरुद के पेड़ से शुरू हो के खेत खलिहान समा जाया करती थी.
:"वो फीलिंग्स" तो अभी नेसेंट थे.
उस सुबह अमरुद के पेड़ पे चढ़ रहा था. अचानक से मेरी नजर पड़ोस वाले छत पे गयी. लम्बे लम्बे बाल दिखे थे. उस छत पे पहले कोई नही दीखता.
उस तरफ देखते हुए मै जितना ऊपर चढ़ सकता था चढ़ा. मुझे नही पता था वो कौन थी? आज के पहले ऐसा कभी नही हुआ था, लेकिन पता नही क्या हुआ और मैंने एक अमरुद उस छत पे फेंक दिया.
वो इधर उधर देखने लगी. मैंने पेड़ जोर से हिलाया ताकि उसको बता सकूँ मैंने वो अमरुद फेंकी थी. जैसे ही पेड़ को हिलते हुए देखा "लंगूर लंगूर" कहते हुए वो भाग गयी.
क्या होना था फिर. वो पड़ोस वाली आंटी घर पे कम्प्लेन ले के आ गयी.
"जवान हो रहा है आपका लड़का। एकदम बदतमीज हो गया है. मेरी भांजी को डरा दिया। पटने में रहती है बेचारी कान्वेंट में पढ़ती है इसको क्या पता है पेड़ पे लंगूर ही नही लड़के भी चढ़ते हैं. सम्भाल लीजिये."
मुझे क्या होने वाला था. मैं भी ठहरा हीरो. अगले सुबह वो फिर छत पे थी और मैंने फिर एक अमरुद दे मारा।
पता नही क्यों कान्वेंट में पढ़ने वाली वो लड़की आज न तो डरी न ही भागी।
मैंने दूसरा अमरुद दे मारा, वो हंसने लगी। उसके बाद तो हर सुबह मैं पेड़ पे जाता। और एक अमरुद के बदले इतना सारा स्माइल ले आता.
उस गुरुवार वो छत पे आयी और तुरत जाने लगी.
"अमरुद नही लेना है आज?" मैंने पूछा। "नहीं नहीं मैं जा रही हूँ. सर्दियों कि छुट्टियों में मामा के घर आयी थी." मैं कुछ बोल पाता इस से पहले वो नीचे जा चुकी थी.
और कुछ समझता इससे पहले सफ़ेद रंग को वो मारुती मेरे सामने से गुजर गयी.
मैंने मेरी साइकिल को शॉर्ट कट रस्ते पे दौड़ा दिया ताकि सड़क पे मै उस से पहले पहुँच जाऊँ। और एक अमरुद के बदले उसकी इतनी सारी स्माइल ले आऊँ.
लेकिन जब मैं सड़क पे पहुंचा "BR-05 - 9869" वाला प्लेट ही दिखा और वो भी एक मिनट के अंदर धुंधला हो गया.
उस दिन के बाद पता नही क्यों मैंने अमरुद के पेड़ पे नही चढ़ा. हाँ बगीचे में जाता रहा.
दो साल में दसवीं पास कर के पटना आया. मैंने पता किया था वो वहाँ किस गली में रहती थी. उसी लोकैलिटी में मैंने अपना डेरा लिया।
और एक दिन वो दिख ही गयी उस मंदिर में. मैंने उसे पहचान लिया और सौभाग्य से उसने भी मुझे।
बातें हुईं तो पता चला वो आज कल साइंस पढ़ रही है. उसी समय कहीं किसी शहर में ब्लास्ट हुआ था. "आपको जर्नलिस्ट बनना है न. ये बताइये लोग क्यों इतना ब्लास्ट करते हैं?."
मैंने कहा
"शहर है ये यहाँ मौसम है बारूदों का एक बार फिर चलो मेरे गाँव मौसम है अमरूदों का
शहर है ये प्यार के लिए इन्तजार है कल परसों का मेरे गाँव खेत है सरसों का"
वो झेंप गयी. और मैं खुश हो गया. शर्म से लाल उसने चेहरे को निचे किया तो वो लम्बे बाल से उसकी मुस्कान छुप गयी.
उस दिन तो वो मेरे गाँव नही आयी.
लेकिन पिछले ३ सालों से हम दोनों सुबह में जगने के बाद साथ साथ उसी बगीचे में चाय पीते हैं. चाय बनाना तो मुझे ही पड़ता है.