आज पता चला था पांच सालों से जिस रास्ते पे हम चलते आ रहे थे वो रेत का था. बहुत मुश्किल से कदम बढ़ पाये थे.
लेकिन आश्चर्य की बात ये थी बालू पे भी हमारे क़दमों के निशान नही बन पाए.
हाँ जो घर
हमने बनाया था एक ही झटक में ढह गया, रेत का जो था.
घर ढह गया
और मै बेघर हो गया, भटकने लगा. पीछे लौटना चाहता था, उस मोड पे जिस मोड पे हम पहली
बार मिले थे. फिर से जिंदगी शुरू करना चाहता था.
लेकिन
क़दमों के निशान के अभाव में रास्ता भटक गया. वो तो हाथ छोड़ दी थी, भटकते गया.
जब मै
अकेले ही वीराने चलता गया पीछे से किसी ने बोला, “धप्पा”.
मैंने देखा तो जिंदगी थी मेरे पीछे.
मैंने पूछा, अब तक मै तुमको समझ नही पाया. कहाँ थी आज तक?
बोली, "मै तो बस चलती जाती हूँ.
ठहरती कहाँ? कभी यहाँ, कभी वहाँ. तुम मुझे खोजते
हो जहाँ, मै कभी नही मिलूंगी वहाँ. कूदते-फांदते रहो. खेलते-खेलातो रहो. रोओगे तो मै कभी नही मिलूंगी."
“मै समझा नही कहना क्या चाहती हो तुम?”
"मै हँसने में हूँ, हँसाने में हूँ.
मै इशक में हूँ, मै प्यार में हूँ. मै भय में नही
मै निराशा में नही. मै साहस में हूँ मै आशा में हूँ. मैं जिंदगी हूँ."
अच्छा तो ऐसा क्या करूँ तुम सदा मेरे
साथ रहो.
"तुम्हारे साथ मैंने कई पड़ाव पार किये है. तुमको
परेशां देखा है. हताश देखा है निराश देखा है. तुमको रोते देखा है, तुमको बिलखते देखा
है. और जब भी तुमने वैसा किया है. मै चली गयी हूँ दूर तुमसे. तुम्हे कभी
पता नही चला. और आज जब वो चली गयी मै फिर से आयी हूँ तुम्हारे पास. ये सब छोडो. जी
लो मुझे."
मैंने जिंदगी से कहा, "अभी मैंने तुम्हें समझना शुरू ही किया और तुम इतने पड़ाव पार
कर चुकी हो.”
जिंदगी ने कहा, “लेकिन वो पड़ाव ही थे. मुकाम तक तो साथ - साथ ही जायेंगे --मै और तुम.."
मैंने जिंदगी की बाँहों में अपना बाँह डाला और हम साथ साथ चल पड़े.
जिंदगी के साथ जिंदगी की ओर, जीने की ओर.
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